Wednesday, May 23, 2012

काम के बोझ से जब थक जाता है जिस्म चरमराने लगते हैं इसके पूर्जे बना लेती हूँ मैं सहारा बिस्तर को निढाल पड़ जाती हूँ उस पर फिर घूमने लगती है ज़ेहन में कुछ तस्वीरें दौड़ने लगती हैं बदन में हरसू तुम्हारी यादें जब आज कैलेंडर देखा तुम्हारा जन्मदिन आ गया शायद भूल गए तुम पर याद है मुझे सबकुछ उतरती नहीं है कुछ भी ज़ेहन से सारी यादों को संजो रखा है मैंने नहीं जानती अब कहाँ हो तुम पर अब भी तुम साथ हो मेरे अब भी मेरे रगों में बह रहे तुम उम्मीद नहीं कि आओगे तुम पर इंतजार अब भी है मुझे तुम्हारा,बस तुम्हारा
_____________ नितिका सिन्हा

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